यह लेख रीतिका खेड़ा के द्वारा लिखा गया है और ये पहले बीबीसी हिंदी की वेबसाइट पर इधर प्रकाशित हुआ था |
दूसरे विश्व युद्ध का माहौल शायद आज दुनिया के माहौल जैसा ही था. लाखों लोगों की मौत हुई, आर्थिक संकट, हिटलर जैसे तानाशाह, जो लोकतांत्रिक रूप से चुने गए, का राज. फिर यूरोप के कई देशों में वही तबाही मचाने वाला विश्व युद्ध एक नए समाज की रचना का अवसर बना.
ब्रिटेन में नेशनल हेल्थ सर्विस (एनएचएस) जिसमें सभी लोगों का मुफ़्त उपचार होने लगा, को लाया गया. एनएचएस को लाने के लिए निजी डॉक्टरों के साथ लॉर्ड बेवन का, कुछ सालों तक, मोल-तोल चला तभी वह संभव हुआ.
अन्य देशों में भी सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था लाई गई ताकि जो बेरोज़गार हैं, उन्हें भत्ता मिले और साथ ही अनौपचारिक सेक्टर को लगभग ख़त्म कर दिया गया.
इससे आयकर देने वालों की संख्या बढ़ी, साथ ही, आय कर की दरें 30-40 फ़ीसदी तक की गई. पिछले 50 सालों में इस मॉडल से उद्योग उपक्रम पर बुरा नहीं, बल्कि अच्छा प्रभाव पड़ा है. उस समय, लोगों ने और राजनीतिक दलों ने एक संकट को एक नए समाज रचने के अवसर में बदला.
विश्व युद्ध लोगों में अनुभूति लाया कि जब बम गिरेंगे तो वह यह नहीं देखेंगे कि ग़रीब का घर है कि अमीर का. ठीक कोरोना वायरस की तरह.
आज भारत में दोहरा संकट टूट पड़ा है. कोरोना वायरस बीमारी और उससे उपजी लॉकडाउन की मजबूरी, आर्थिक और मानवीय संकट. लॉकडाउन से पूरा देश आर्थिक रूप से प्रभावित होगा.
जिस वायरस की वजह से लॉकडाउन की नीति अपनाई गई, उससे एक अनुमान के अनुसार ज़्यादा-से-ज़्यादा 20 फ़ीसदी जनसंख्या संक्रमित होगी, जिसमें से एक से तीन फ़ीसदी की मौत हो सकती है.
भारत में काम में लगे लोगों में से 20 प्रतिशत से कम नौकरी पर निर्भर है; एक तिहाई दिहाड़ी मज़दूर हैं, जो रोज़ कमाते हैं तो खाते हैं. 4 प्रतिशत कांट्रैक्ट लेबर है, लगभग आधे स्वरोज़गार पर जीते हैं. स्वरोज़गार में दर्ज़ी, मैकेनिक, मोची, ठेलेवाले, दुकानदार से लेकर बड़े उद्योगपति शामिल हैं. इनके लिए मानवीय आपदा पैदा हो गई है.
लॉकडाउन का आर्थिक प्रभाव अन्य देशों के तुलना में बहुत अलग होगा. लॉकडाउन के पहले हफ्ते में ही 40 से 90 ऐसी मौतें हुई हैं, जो बंदी से उपजे आर्थिक संकट का नतीजा हैं. भूख, पैदल सैकड़ों किलोमीटर दूर घर पहुंचने की कोशिश से थकान ने कई लोगों की जान ले ली है.
दुनिया के अन्य देशों में जहां लॉकडाउन किया गया है, वहां ज़्यादातर लोग नौकरीशुदा हैं. वहां सामाजिक सुरक्षा, जैसे कि बेरोज़गारी भत्ता की बड़ी व्यवस्था भी है. उन देशों में सरकारी स्वास्थ्य पर जीडीपी का 8-10 फ़ीसदी खर्च किया जाता है, जबकि भारत में एक फ़ीसदी के आसपास है.
सरकार की ओर से कोरोना के ख़िलाफ़ जो रणनीति अपनाई गई है, वह देश के उस हिस्से के लिए है, जो विकसित देश की तरह जीवनयापन करता है: आमदनी या बचत है, जिससे वो आर्थिक रूप से भी लॉकडाउन को झेल सकते हैं, घरों में इतनी जगह है कि वह लॉकडाउन के दौरान वायरस से सुरक्षित रहेंगे, साबुन से हाथ बार-बार धोए जा सकते हैं और चूँकि लोग घरों में बैठे हैं, इसलिए उनके मनोरंजन के लिए दूरदर्शन पर फिर से रामायण दिखाने की घोषणा भी की गई है. लेकिन यह लगभग 30 फ़ीसदी आबादी की बात है.
बाक़ी 70 फ़ीसदी आबादी के लिए, घर पर रहने से वायरस का ख़तरा भी अधिक हो सकता है (यदि वहां कोई कोरोना का केस मिले तो, जैसे कि मुंबई की परेल की झुग्गी में पाया गया), क्योंकि वे कम जगह में रहते हैं.
आर्थिक रूप से लॉकडाउन घातक है क्योंकि चार घंटों में उनकी कमाई बंद हो गई और लोग अपने घर-गांव भी नहीं पहुच पाए. इस वर्ग के कई लोग वैसे भी भूख की कगार पर अपना जीवन बिताते हैं. एक छोटी सी टक्कर उनके लिए घातक हो सकती है. यह ही कारण है कि बड़े शहरों से सैंकड़ों की तादाद में मज़दूर गांव की ओर चल पड़े.
खाद्य सुरक्षा सबसे पहली ज़रूरत है. तीन महीनों तक दोगुना राशन देने की घोषणा अच्छी थी, लेकिन उसका लाभ उठाने के लिए उन्हें या तो घर पहुंचना होगा (जहां उनका राशन कार्ड है) या जहां हैं वहां कोई और प्रबंध करना होगा.
बेहतर यह होता कि सरकार पहले ही उन्हें आश्वासन देती कि उनके लिए स्कूल खोल दिए जाएंगे और वहीं ‘लंगर’ चलाया जाएगा. आज देश में अधिक अनाज के भंडारण की समस्या है – इसका और अच्छा क्या उपयोग हो सकता है. अब भी उनके लिए यह ऐलान किया जा सकता है, कि वह जहां भी हैं वहीं के पास के स्कूल, सामुदायिक भवन, इत्यादि खोले जा रहे हैं. केंद्र सरकार को यह घोषणा जल्द ही कर देनी चाहिए.
यदि कोरोना के ख़िलाफ़ सरकार को लॉकडाउन ही उपाय दिखाई दे रहा था, तो सरकार को मज़दूरों को कम से कम 2-4 दिन का समय देना चाहिए था, ताकि वो अपने घर पहुंच जाएं. वहां कम से कम सिर पर छत की व्यवस्था है और कुछ खाने को भी मिल सकता है.
आश्चर्य की बात यह है कि मज़दूरों के बारे में बिल्कुल नहीं सोचा गया. शहरों से उनका गाँवों की तरफ़ पलायन दिखाई देने लगा. लोग पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर दूर, बच्चों और सामान को सिर पर उठाकर गाँव की ओर निकल पड़े.
बहुत मज़दूर अपने गाँव से इतने दूर हैं कि पैदल घर पहुंचना मुमकिन नहीं था, इसलिए नहीं निकले. वे लोग फ़ोन पर वीडियो बनाकर अपने मुख्यमंत्री से रोते-रोते निवेदन कर रहे हैं कि उन्हें किसी तरह घर लाया जाए. उनका कहना है, “कब तक पानी पी-पीकर जी सकते हैं?”
जब उनकी कठिन स्थिति को देखकर बवाल होने लगा तो उम्मीद बनी कि शायद सरकार कुछ व्यवस्था करेगी. तब भी राहत पैकेज में उनके लिए कुछ नहीं था. न रहने का बंदोबस्त, न खाने का.
केंद्र सरकार को खाना और नक़दी, दोनों तरह की राहत देनी चाहिए. तीन महीनों तक जनधन योजना खाताधारकों को 500 रुपये देने से काम नहीं चलेगा. मनरेगा मज़दूरों को भी तीन महीनों तक प्रति माह 10 दिन की मज़दूरी मिलनी चाहिए. इसके बाद उन्हें साल में 100 दिन का रोज़गार मिलना चाहिए. पेंशन के नाम पर केन्द्र सरकार 200 रुपए प्रति व्यक्ति प्रति माह देती है, इसे भी बढ़ाने की ज़रूरत है.
आर्थिक चुनौती के साथ-साथ यह एक सामाजिक चुनौती भी है. कठिन समय में, सामाजिक रूप से हम क्या व्यवहार करते हैं? ख़ुशी की बात यह भी है कि समाज में कई लोग मज़दूरों की मदद के लिए आगे आए हैं. लेकिन यह याद रखना ज़रूरी है कि सरकारों का हम चयन ऐसी ही स्थिति के लिए करते हैं – इतने बड़े पैमाने पर सरकार ही काम कर सकती है.
दूसरी ओर हम इस बात को भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते कि एक तरफ़ हमारे ही समाज में लंदन से लौटे ‘पढ़े-लिखे’ लोगों ने घर पर रहने की सलाह न मानकर बीमारी फैलाई और दूसरी ओर करोना मरीज़ का इलाज करने वाले डॉक्टर को मकान मालिक ने निकालने की कोशिश की. कुछ लोग मुनाफाखोरी में भी लगे हुए हैं.
मज़दूरों प्रति सरकार का असंवेदनशील रवैया भी हैरान करने वाला है. क्या यह मुमकिन है कि सरकार ने परेशान लोगों की तस्वीरें और पुलिस अत्याचार के वीडियो नहीं देखे? यदि हाँ, तो क्या तर्क हो सकता है इस निर्णय के पीछे कि जो लॉकडाउन को नहीं मानेंगे उनके लिए स्टेडियम को अस्थायी जेल बना दिया जाएगा. कैसे मंत्री रामायण देखेते हुए अपनी तस्वीर साझा कर रहे हैं?
एक माननीय सांसद ने ट्वीट किया कि जो मज़दूर वापस जा रहे हैं वो ग़ैर-ज़िम्मेदार हैं, क्योंकि ऐसा तो नहीं कि गाँव में उनके लिए नौकरियां हैं और यह कि लौटने के पीछे उनकी मंशा है कि वह वहां छुट्टी मनाएं.
वास्तव में सामान्य परिस्तिथियो में नीति निर्माण में देश की इस 70 फ़ीसदी आबादी की उपेक्षा के हम (डेवेलपमेंट एकॉनमिस्ट) आदी हो चुके हैं. इस हद तक कि यह लोग मानो अदृश्य हैं. कोई संवेदनशील पत्रकार हो, तो शायद वह लघु कृषि की बात कर ले. लेकिन मज़दूर वर्ग चर्चा से लुप्त हो चुका था. लॉकडाउन से अचानक यह वर्ग मीडिया की नज़र में भी आया है.
ऐसे में उम्मीद राज्य सरकारों से कायम है, जहां सक्रिय रूप से कदम उठाए जा रहे हैं. केरल में सस्ते खाने के पैकेट, राजस्थान में मुफ़्त में बस से गांव तक पहुंचाने की व्यवस्था, ओडिशा में लौट रहे मज़दूरों की जांच, खाने और रहने का बंदोबस्त, पंजाब और बिहार के मुख्यमंत्री बिहारी मज़दूरों के प्रबंधन के लिए बात कर रहे हैं, इत्यादि.
जहां तक स्वास्थ्य की बात है, तुरंत उठाने वाले कदमों में टेस्टिंग बढ़ाने और स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने वालों के लिए मास्क और दस्ताने की ज़रूरत है. कुछ समय के लिए ही सही, अन्य देशों की तरह सरकार को निजी अस्पतालों का राष्ट्रीयकरण करना चाहिए ताकि सबको उपचार मिल सके. आज एक मौका है कि हम समझें कि स्वास्थ्य पर खर्च न करना कितनी बड़ी भूल थी.
इस वायरस की महामारी से हम समझें कि जीडीपी बढ़ाने के लिए कई रास्ते हैं: नर्स, डॉक्टर, अस्पताल, इत्यादि पर ज़ोर, सड़कों और फ्लाइओवर पर, रफ़ाल जैसे विमानों पर. यदि हमने शिक्षा और स्वास्थ्य पर ज़ोर दिया होता तो आज स्थिति को संभालने में और सक्षम होते.
आगे की लंबी लड़ाई के लिए हमें सोचने की ज़रूरत है कि हम एक संवेदनशील समाज की रचना करना चाहते हैं या फिर जैसा अभी है – जाति, धर्म, लिंग, वर्ग पर विभाजित सामाज में ही रहना चाहते हैं.